गीता प्रेस, गोरखपुर >> दुःख क्यों होते हैं दुःख क्यों होते हैंहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है दुःख क्यों होते है का मार्मिक चित्रण....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भाईजी (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार) के व्यक्तिगत पत्रों का संग्रह जो
‘लोक-परलोक का सुधार’ के नाम से प्रकाशित होता जा रहा है,
उसके चार भाग निकल चुके हैं। उसी संग्रह का यह पाँचवा भाग जनता की सेवा
में प्रस्तुत है। पिछले चार भागों का जनता ने जो आदर किया है, उसी से
उत्साहित होकर यह पाँचवाँ भाग इतना शीघ्र प्रकाशित किया जा रहा है। आशा
है, इसे भी लोग उतने ही चावसे पढेगें और लेखक अमूल्य लाभ उठायेंगे। पिछले
भागों की भाँति इस पाँचवे भाग में भी जिन-जिन विषयों का समावेश हुआ है, वे
सभी परमार्थ और व्यवहार्य दोनों की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व के हैं।
वास्तव में परमा्र्थ और व्यवहार दो वस्तु नहीं हैं। ‘हरिरेव
जगज्जगदेव हरिर्हिरितो जगतो नहि भिन्नतनुः’-यही सच्चा सिद्धान्त है
और हमारा सनातन आर्यवैदिक धर्म हमें यही सिखलाता है। लेखक के विचार
इसी सिद्धान्त से अनुप्राणित हैं, और इसी दृष्टिकोण से उन्होंने
लौकिक एवं पारलौकिक सभी विषयों को समझाने की चेष्टा की है।
हमें आशा है और विश्वास है कि वर्तमान सग्रह को जो मननपूर्वक पढ़ेंगे, उन्हें जीवन में सच्चा प्रकाश मिलेगा और उसका लोक-परलोक दोनों में कल्याण होगा। कहना न होगा कि आज का जगत् आत्म-विनाश पर तुला हुआ है और हमारा यह बूढ़ा भारत भी उसी का पदानुशरण करने में गौरव का अनुभव करने लगा है। हमारी आध्यात्मिकता ही हमें और सम्पूर्ण विश्वको विनाश से बचा सकती है और वर्तमान संग्रह इस दिशा में हमारे लिये सच्चे-पथ-प्रदर्शन का काम देगा। भगवान् सबका मंगल करें और सबको सद्बुद्धि प्रदान करें।
हमें आशा है और विश्वास है कि वर्तमान सग्रह को जो मननपूर्वक पढ़ेंगे, उन्हें जीवन में सच्चा प्रकाश मिलेगा और उसका लोक-परलोक दोनों में कल्याण होगा। कहना न होगा कि आज का जगत् आत्म-विनाश पर तुला हुआ है और हमारा यह बूढ़ा भारत भी उसी का पदानुशरण करने में गौरव का अनुभव करने लगा है। हमारी आध्यात्मिकता ही हमें और सम्पूर्ण विश्वको विनाश से बचा सकती है और वर्तमान संग्रह इस दिशा में हमारे लिये सच्चे-पथ-प्रदर्शन का काम देगा। भगवान् सबका मंगल करें और सबको सद्बुद्धि प्रदान करें।
चिम्मनलाल गोस्वामी
एम०ए०, शास्त्री)
एम०ए०, शास्त्री)
दुःख क्यों होते हैं ?
काम के पत्र
(पञ्चम भाग)
(1)
भगवान् सर्वसमर्थ हैं
सादर हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। आप विश्वास कीजिये, भगवान’
‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ’ हैं। उनके लिये कुछ
भी
असम्भव नहीं है-
रीते भरै, भरै पुनि ढोरै, चाहे तो फेरि भरै।।
कबहूँ तृन डूबै पानी में, कबहूँ सिला तरै।
बागर ते सागर करि राखै, चतुँदिसि नीर भरै।
पाहन बीच कमल बिलसावै, जलमें अग्रि जरै।
सूत पतति तरि जाय तनिक में जो प्रभु नेक ढरै।।
कबहूँ तृन डूबै पानी में, कबहूँ सिला तरै।
बागर ते सागर करि राखै, चतुँदिसि नीर भरै।
पाहन बीच कमल बिलसावै, जलमें अग्रि जरै।
सूत पतति तरि जाय तनिक में जो प्रभु नेक ढरै।।
भगवान के भजन ऐसी अग्रि उत्पन्न होती है जो जन्म-जन्मान्तर के पापों को
क्षणों में जला डालती है। भक्ति के प्रयास में ही सारे प्रायश्चित और
कर्मफल-भोग एक ही साथ हो जाते हैं। भगवत्कृपा से ऐसी-ऐसी विलक्षण बातें
होती हैं जिनकी हमलोग कल्पना भी नहीं कर सकते। जो लोग तर्क की कसौटी पर
कस-कसकर-अपने विषयासक्ति से दूषित गंदी बुद्धिरूपी तराजू पर तौल-तौलकर
भगवान को परखना चाहते हैं, उन्हें तो निराश ही होना पड़ता है; पर जो संतों
और भक्तों के अनुभव को परम सत्य मानकर विश्वास के साथ भगवान का भजन करने
लगते हैं, भक्तिमणि को अपने हृदय में बसा लेते हैं, उनके लिये सब कुछ सुलभ
और अनुकूल हो जाता है-
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उस माहीं।।
गरल सुधा सम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
गरल सुधा सम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
और वास्तव में उसी में सारे गुण भी आ जाते हैं।–
सोई सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता।।
धर्मपरायन सोई कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता ।।
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धान्त नीक तेहि जाना।।
सोई कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।
धर्मपरायन सोई कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता ।।
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धान्त नीक तेहि जाना।।
सोई कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ, जिन्होंने भगवान् पर विश्वास करके असम्भव-से
जान पड़ने वाले कार्यों में विलक्षण सफलता प्राप्त की है और ऐसी महान्
विपत्तियों से सहज ही तर गये हैं, जिनसे तरने का कोई भी उपाय सामने नहीं
रह गया था और ये सब बातें जादू की भाँति बहुत थोड़े ही समय में हो गयी
हैं।
अवश्य ही इससे मैं यह नहीं कहना चाहता कि भगवान् हमारी अनुचित और विनाशकारी इच्छा को भी पूर्ण कर देंगे। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि इच्छा के विपरीत फल में ही हमारा कल्याण था,
कहीं अनुकूल फल होता तो बहुत बुरा होता। इसलिये सर्वशक्तिमान् भगवान पर विश्वास करके अपनी समस्या उन्हीं को सौंप दीजिये। वे मंगलमय मंगल ही करेंगे।
आपने जिन उपायों का उल्लेख किया है, वे तो वस्तुतः दुःख बढ़ाने वाले ही हैं। ‘लोग उन उपायों को काम में लाते हैं और उनमें सफल होते देखे जाते हैं।’ आपका यह लिखना बाहरी दृष्टि से ठीक है; परंतु इसमें रहस्य यह है कि वे यदि इस समय सुख-भोग करते हैं तो वह उनके पूर्वजन्मार्जित किसी पुण्यकर्म का परिणाम है, वर्तमान पाप का फल नहीं। बीज बोते ही फल नहीं लग जाते। समय पूरा होने पर ही परिणाम प्रकट होता है। उनके वर्तमान पापों का परिणाम जब प्रकट होगा, तब वे सुख में कदापि नहीं रहेंगे। दुःखों और नरक-यन्त्रणा में ही छटपटाते मिलेंगे। आप निश्चय मानिये, बुरे का फल अच्छा और अच्छे का फल बुरा कभी नहीं हो सकता !
सकाम भक्ति बुरी नहीं है, न पाप ही है। सकाम करते-करते ही निष्कामता प्राप्त होती है। भगवान ने तो अपने सकाम भक्त को भी ‘सुकृती’ और ‘उदार’ बतलाया है और अन्त में उसे भगवान की प्राप्ति होगी, यह घोषणा की है (देखिये गीता अध्याय 7 श्लोक 16, 18, 23); परंतु सकाम भक्ति में अनन्य निष्ठाकी आवश्यकता है। सच्ची सकाम भक्ति न तो मनचाही वस्तु प्राप्त होने पर छूटती है और न मनचाही न प्राप्त होने पर भी घटती ही है। वह भक्ति है, कोई मोल-तौल का सौदा नहीं है। किसी पतिव्रता स्त्री को गहनों-कपड़ों की इच्छा है, पर है वह एकमात्र पति से ही। गहने-कपड़े न मिलने पर उसकी पति-भक्ति कम नहीं होती और मिल जाने पर ऐसा भाव नहीं होता कि वस्तु मिल गयी, अब पति से क्या काम रहा।
असल में सच्चा सकाम भक्त किसी वस्तु या स्थिति को तो चाहता है; परंतु उसका अपने भगवान में दृढ़ विश्वास होता है और वह उस वस्तु की उपेक्षा अपने भगवान को अधिक मूल्यवान् और आवश्यक समझता है। जो लोग भगवान में श्रद्धा-भक्ति नहीं रखते और अवसर आने पर किसी कार्य की सिद्धि के लिये अनुष्ठान करते-कराते हैं, उनकी श्रद्धा सिद्धि न होने पर तो घट ही जाती है सिद्धि होने पर भी स्थिर नहीं रहती; क्योंकि उन्हें भगवान से काम नहीं है उनका काम तो अपनी कामना की वस्तु से है। भगवान् और उनकी पूजा का अनुष्ठान तो उसका साधनमात्र था। साध्य प्राप्त होने पर साधन से क्या प्रयोजन ! इसलिये सकामभाव से अनुष्ठान करने वालों को भक्त बनना चाहिये, सौदागर नहीं।
सबसे ऊँची तो निष्काम अहैतुकी प्रेमभक्ति ही है जो अकारण होती है और जिनके रहे बिना भक्त को चैन नहीं पड़ता। वह एक क्षण भी भगवान को भूल जाता है तो उसे परम व्याकुलता होती है और उसे वह महान-से-महान् विपत्ति मानता है। इसी भक्ति कामना और इसी की प्राप्ति के लिये साधन-भक्ति का आचरण करना चाहिये।
अवश्य ही इससे मैं यह नहीं कहना चाहता कि भगवान् हमारी अनुचित और विनाशकारी इच्छा को भी पूर्ण कर देंगे। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि इच्छा के विपरीत फल में ही हमारा कल्याण था,
कहीं अनुकूल फल होता तो बहुत बुरा होता। इसलिये सर्वशक्तिमान् भगवान पर विश्वास करके अपनी समस्या उन्हीं को सौंप दीजिये। वे मंगलमय मंगल ही करेंगे।
आपने जिन उपायों का उल्लेख किया है, वे तो वस्तुतः दुःख बढ़ाने वाले ही हैं। ‘लोग उन उपायों को काम में लाते हैं और उनमें सफल होते देखे जाते हैं।’ आपका यह लिखना बाहरी दृष्टि से ठीक है; परंतु इसमें रहस्य यह है कि वे यदि इस समय सुख-भोग करते हैं तो वह उनके पूर्वजन्मार्जित किसी पुण्यकर्म का परिणाम है, वर्तमान पाप का फल नहीं। बीज बोते ही फल नहीं लग जाते। समय पूरा होने पर ही परिणाम प्रकट होता है। उनके वर्तमान पापों का परिणाम जब प्रकट होगा, तब वे सुख में कदापि नहीं रहेंगे। दुःखों और नरक-यन्त्रणा में ही छटपटाते मिलेंगे। आप निश्चय मानिये, बुरे का फल अच्छा और अच्छे का फल बुरा कभी नहीं हो सकता !
सकाम भक्ति बुरी नहीं है, न पाप ही है। सकाम करते-करते ही निष्कामता प्राप्त होती है। भगवान ने तो अपने सकाम भक्त को भी ‘सुकृती’ और ‘उदार’ बतलाया है और अन्त में उसे भगवान की प्राप्ति होगी, यह घोषणा की है (देखिये गीता अध्याय 7 श्लोक 16, 18, 23); परंतु सकाम भक्ति में अनन्य निष्ठाकी आवश्यकता है। सच्ची सकाम भक्ति न तो मनचाही वस्तु प्राप्त होने पर छूटती है और न मनचाही न प्राप्त होने पर भी घटती ही है। वह भक्ति है, कोई मोल-तौल का सौदा नहीं है। किसी पतिव्रता स्त्री को गहनों-कपड़ों की इच्छा है, पर है वह एकमात्र पति से ही। गहने-कपड़े न मिलने पर उसकी पति-भक्ति कम नहीं होती और मिल जाने पर ऐसा भाव नहीं होता कि वस्तु मिल गयी, अब पति से क्या काम रहा।
असल में सच्चा सकाम भक्त किसी वस्तु या स्थिति को तो चाहता है; परंतु उसका अपने भगवान में दृढ़ विश्वास होता है और वह उस वस्तु की उपेक्षा अपने भगवान को अधिक मूल्यवान् और आवश्यक समझता है। जो लोग भगवान में श्रद्धा-भक्ति नहीं रखते और अवसर आने पर किसी कार्य की सिद्धि के लिये अनुष्ठान करते-कराते हैं, उनकी श्रद्धा सिद्धि न होने पर तो घट ही जाती है सिद्धि होने पर भी स्थिर नहीं रहती; क्योंकि उन्हें भगवान से काम नहीं है उनका काम तो अपनी कामना की वस्तु से है। भगवान् और उनकी पूजा का अनुष्ठान तो उसका साधनमात्र था। साध्य प्राप्त होने पर साधन से क्या प्रयोजन ! इसलिये सकामभाव से अनुष्ठान करने वालों को भक्त बनना चाहिये, सौदागर नहीं।
सबसे ऊँची तो निष्काम अहैतुकी प्रेमभक्ति ही है जो अकारण होती है और जिनके रहे बिना भक्त को चैन नहीं पड़ता। वह एक क्षण भी भगवान को भूल जाता है तो उसे परम व्याकुलता होती है और उसे वह महान-से-महान् विपत्ति मानता है। इसी भक्ति कामना और इसी की प्राप्ति के लिये साधन-भक्ति का आचरण करना चाहिये।
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